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कृष्णन के लिए प्रेम कविताएँ / मंजरी श्रीवास्तव

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१.

तुम्हारे साथ मैं अपने स्त्रीत्व के सर्वश्रेष्ठ रूप में होती हूँ
हमारे सामीप्य और स्पर्श की मुखरता
शब्दों की महत्ता गौण कर देती है
फिर उग आते हैं मेरे वजूद में मौन के अद्भुत पंख
जो स्वयं को, स्वयं की ही परिधियों, श्रृंखलाओं और सीमाओं से मुक्त कर देते हैं
हम दुनियावी प्रपंचों से दूर होने लगते हैं
और यह दूरी हमें एकांत की सघनतम ऊंचाइयों पर ले जाती है.
हमें हमारी आत्मा के कुछ और निकट ले आती है.
यह उद्दात ऊंचाई किसी भी प्रकार की मलिनता से दूर करके हमें ऋषियों की तरह
शांत, समाधिलीन बनाती है.
जीवन में कुछ गुणात्मक परिवर्तन लाती है.
हम आत्म-आह्वान करने लगते हैं और अब मौन आत्माभिव्यक्ति ज्यादा प्रखर हो उठती है.
भाव-तंत्रिकाएं समृद्ध होने लगती हैं.
संवेदनाएं परिष्कृत और सौन्दर्यबोध सुपरिभाषित.
हम मोक्ष-संधान की ओर उन्मुख होने लगते हैं और प्रेम-मार्ग का संधान करने लगते हैं पल-प्रतिपल
भावनाओं की परिवर्तनशील ऊष्मा से हम और ज़्यादा आंदोलित होने लगते हैं.
सुख को अस्थायी और क्षणिक
और दुःख को जीवन माननेवाले हम
अब प्रेम को ही स्थिर और स्थायी मानने लगते हैं.
प्रेम हमें इतना क्षमाशील, उदार और नम्य बना देता है कि
हम अपने मनुष्य होने को सार्थक समझने लगते हैं.

सर्वश्रेष्ठ रूप में जीने का अर्थ है
सर्वश्रेष्ठ रूप में प्रेम करना.

२.

इस बोध तक पहुंचना अत्यंत पीड़ादायक था
तुम्हारे साथ बिताया गया एक-एक पल हिमीकृत है मेरी स्मृति में
सुरों के द्वारा मैंने तुम्हारे विरह में रातें काटीं

अपने शांत ककून में बचे रहने के लिए
इस कठोर संसार पर निर्भर रहना ही होता है मुझे
यही विडम्बना है.
इन दोनों ही संसारों की संरचना और बाध्यताएं
कितनी विरोधी, तनावजनक और शिराभंगी हैं कि
मैं कई बार मन की गहन कंदराओं में रहने चली जाती हूँ.

युगों और संवत्सरों के बाद अब जब तुम लौटने को उद्यत हो
आ जाओ कि हम दोनों के जीवन का नया सर्ग आरम्भ होने को है
अव्यक्त प्रेम की असफल कवयित्री बन गई हूँ मैं इन दिनों
रुई-रेशों से निःशब्द झर रहे हैं मेरे हिमीकृत आंसू
हिम बनी मेरी वेदना
बर्फ़ बना मेरा विरह
कि अब लौट भी आओ प्रियतम.

३.

बहुत नन्हा-सा प्रेम किया है मैंने तुमसे
जीवन की इस ढलती शाम में
ऐसा लगता है कि जीवन के इस चालीसवें वसंत में
मैंने कामधेनु-संधान कर लिया है.

अपने टूटे हुए भावात्मक संबल के साथ
तिल-तिल जलती अपनी तड़प के साथ
बंद आँखों के साथ
वर्षा की तेज़ बौछारों के थपेड़े खाती
सुर-तरंगों से आवृत काले-कजरारे मेघों के साथ मैं विरहिणी बनी उड़ रही थी
जब मेरी पलकें बंद हो गईं थीं
सुप्त चेतना और गहन शान्ति से मैं
अंतरिक्ष की ओर सन्तरण कर रही थी
ठीक उसी समय
तुमने इस डूबते को तिनके का सहारा दिया
एक अंजुरी जल से.

तुम्हारी अंजुरी से मैं पानी पी रही थी
अपने अधर दबाते हुए
पीना बहुत धीमा था, दवाब अधिक
स्पर्श-ऊष्मा तुम्हारे त्वचा-रंध्रों से रिसकर
मेरी चेतना में रेंगने लगी थी.
भीगी आँखों में आह्लाद साथ लिए
नाचने लगी थी मैं मन ही मन
यह आह्लाद विभोरी नृत्य था
जैसे जीवन भर मरुभूमि में छाले पड़े पांवों से दौड़ने के बाद हिम स्पर्श मिला हो और
जीवन की स्थायी रागिनी बन रहा हो अब.

तुमने मेरे पंखों को और बलशाली बनाया
कई सागरों को पार करनेवाली सुदीर्घ यात्रा करने जितना
मौन में मेरी ध्वनि तरंगें कुछ क्षण कंपकंपाती रहीं
फिर जाने कब तुम मेरे आत्मा-सहचर बन गए और हम भाव-तल्लीनता के नृत्य में रत हो गए.

हमारे आलिंगन के प्रमाणस्वरूप छूटी गहरी धारियों में
जाने कैसे सुर बजने लगे
राग-विराग के
किंचित आह्लाद के

स्पर्श का एक झोंका भीतर कहीं स्पंदित हुआ
देखते-देखते उसका भाव बदलने लगा
जो आँखें भावहीन थीं
अब उड़ते, प्रगाढ़ होते राग-रंग प्रतिबिंबित करने लगीं
हम दोनों के बीच एक अभेद्य लौह-कपाट उत्पन्न हो गया.

तुमने मुझे वर्षा के थपेड़ों से निकालकर
बारिश में भीगना
उसे महसूसना सिखाया.

इन दिनों मैं एक अगम्य आकाश-कुसुम बनी
निःश्वास सुगन्धित समीर बाँट रही हूँ.

वह तुम ही हो जो मेरे अस्तित्व और भावतंत्र में
बुन और पिरो दिए गए हो
तुम्हारी आत्मीयता से मेरी चेतना और आत्मा दोनों सुगन्धित है.
इस शिखर पर तुम और सिर्फ़ तुम ही मेरी आत्मा की अनिवार्यता हो

(इस बेरहम लॉकडाउन में पतिदेव से तीन महीने दूर रहने के विरह में लिखी गई कविता... ये तीन महीने तीन युगों जैसे बीते)