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कृष्णा / सुमन केशरी

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मैं पांचाली-पुंश्चली
आज स्वयं को कृष्णा कहती हूँ
डंके की चोट !

मुझे कभी न भूलेगी कुरुसभा की अपनी कातर पुकार
और तुम्हारी उत्कंठा
मुझे आवृत्त कर लेने की

ओह! वे क्षण
बदल गई मैं
सुनो कृष्ण ! मैंने तुम्हीं से प्रेम किया है
दोस्ती की है

तुमने कहा-
“अर्जुन मेरा मित्र, मेरा हमरूप, मेरा भक्त है
तुम इसकी हो जाओ
मैं उसकी हो गई”

तुमने कहा-
“माँ ने बाट दिया है तुमको अपने पाँचों बेटो के बीच
तुम बँट जाओ
मैं बँट गई

तुमने कहा-
सुभद्रा अर्जुन प्रिया है
स्वीकार लो उसे
और मैंने उसे स्वीकार लिया

प्रिय ! यह सब इसलिए
कि तुम मेरे सखा हो
और प्रेम में तो यह होता ही है !

सब कहते हैं-
अर्जुन के मोह ने
हिमदंश दिया मुझे
किन्तु मैं जानती हूँ
कि तुम्हीं ने रोक लिए थे मेरे क़दम
मैं आज भी वहीं पड़ी हूँ, प्रिय
मुझे केवल तुम्हारी वंशी की तान
सुनाई पड़ती है
अनहद नाद-सी ।