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केदारनाथ अग्रवाल के प्रति / रविकान्त

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जा रहे किधर
अपने कामों से निपट?
देखूँ तुम्हें
बैठूँ तुम्हारे पास
सुनूँ गप तुम्हारी...

सीखूँ जरा!
बसों, दुकानों और मित्रों के बीच
मुक्त होते हुए देखूँ तुम्हें,
शायद पाऊँ अपने को

क्षोभ-संताप सब भूलते जाने की आदत
तुम्हें बना रही है
हाय
तुम कितने खुश हो!