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केरा कै पात मोरा मन / हरिश्चंद्र पांडेय 'सरल'

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केरा कै पात मोरा मन, बैरी कै काँट न उगाओ।
अबहीं पियासे नयन, नयनन कै पलक न झपाओ॥

आह भरैं कहि जायँ बतिया सारी,
भाठी जराय देय लोहेउ कै आरी,
यनकै अनोखी अगिन, दुखिया कै आह न जगाओ।

मरुथल जिनिगिया है रेत निसानी,
बाढ़ै पियसिया तौ झलकै जस पानी,
छले जायँ भोले हिरन, कंचन घट बिख न भराओ।

दरद हमार मोरे जियरा कै साथी,
जरि गवा तेल मुला बरी नहीं बाती,
थकि चली साँस कै चलन, जोति गये दीप न जराओ॥