भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

केलंग-2/ पानी / अजेय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बुरे वक़्त में जम जाती है कविता भीतर
मानो पानी का नल जम गया हो

चुभते हैं बरफ के महीन क्रिस्टल
छाती में

कुछ अलग ही तरह का होता है, दर्द
कविता के भीतर जम जाने का

पहचान में नहीं आता मर्ज़
न मिलती है कोई `चाबी´
`स्विच ऑफ´ ही रहता है अकसर
सेलफोन फिटर का।