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कैसी है ये जग की रीति / कल्पना 'मनोरमा'
Kavita Kosh से
बूंद-बूंद से भर जाता घट
बूंद –बूंद कर जाता रीत
कैसी है ये जग की रीति?
धक्का देकर अंधियारे को
सूरज रोज निकलता
अभिनन्दन पाता शबनम से
फिर रहता जलता
बढ़ता दिखता घड़ी-घड़ी दिन
घड़ी-घड़ी जाता है रीत
कैसी है ये जग की रीति?
हिम गोदी से उतर चली जब
सरिता काल काल करती
धूसर-ऊसर या हरियाली
सब के मन को भरती
अंजाने पथ चले अनवरत
फिर भी लुटा रही है प्रीत
कैसी है ये जग की रीति?
खोज रहे हो जीवन तो अब
साँसों को पहचानों
खुद से अपनापा रक्खो तो
औरों को भी जानों
रहे साधते स्वांस स्वांस सुर
फिर भी नहीं साधा संगीत
कैसी है ये जग की रीति?