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कैसे करि यह मन सखि! मारों / स्वामी सनातनदेव

राग विहाग, आढ़ चौताल 19.7.1974

कैसे करि यह मन सखि! मारों।
पुनि-पुनि दौरि जात प्रीतम ढिग, कौन जतन करि याहि निवारों॥
हटकन-अटकन नैंकु न मानत, बरबस याकी रुचि अनुसारों।
याकी रुचि में ही रचि-पचि नित अपनो भाग-सुहाग सम्हारों॥1॥
लली-ललन की ललित लालिमा<ref>कान्ति, लाली</ref> लखि-लखि जिय की जरनि निवारों।
ता छवि में छकि-छकि चकि-चकि सखि! ताही पै तनमन सब वारों॥2॥
माके फन्द फँसी जबसों तबसों उर को डरिबो न सम्हारों।
लाज गयी, कल-कानि गयी, अब स्याममयी सब भूमि निहारों॥3॥
स्यामसों काम है मोहिं सखी! अब वेद को खेद कहाँ लगि धारों।
प्रीतम की रति आय बसी उर, तामें कहाँ जग की मति डारों॥4॥
मैं तो भई अब स्याममयी सखि! स्यामा की पद-रति उर धारांे।
नेह-मेह भींगी दोउन के जाय कहाँ जग में झक मारों॥5॥

शब्दार्थ
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