भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कैसे गाये गीत मुसाफ़िर / शिवदेव शर्मा 'पथिक'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कैसे गाये गीत मुसाफ़िर मंज़िल कैसे जाये!
शोषण की आंधी में कोई कैसे पाँव बढ़ाये!

क़दम-क़दम पर काँटे चुभते, राह-राह पर रोड़े,
फूल मिले तो लिखा हुआ है 'इसे न कोई तोड़े' ।
आशाओं में आग लगाकर, चलना भी मुश्किल है,
'छलना' हीं जिसका धन्धा हो, उसे मिली मंज़िल है।

चलनेवाला थक जाता है, छलनेवाला पाये!
उल्टी गंगा बही हुई है कौन किसे समझाये!

गरल प्रवाहित इंसानों की नस में, लहू नहीं है,
बुढ़िया धरती चीख रही है 'आशा बहू कहीं है' !
प्राणों की संगिनी साँस में ज्वाला है आहों की,
सुलग रही अंगारों के नीचे छाती राहों की।

सबको होड़ लगी जाने की बाट कौन बतलाये!
सोने की लंका में युग की सीता नीर बहाये!

एक बढ़े तो सौ-सौ आंखें जलने लग जाती है,
हंसता है संसार, किसी की साधें मर जाती है।
जला रहा इंसान स्वयं सर्वोदय की परिभाषा,
आज खड़ा है विश्व नाश के तट पर हारा-प्यासा।

अरे! किसी में बल है तो प्यासों की प्यास बुझाये?
लाज नग्न हो गयी, अभी भी कोई चीर बढ़ाये!

ऊंचे मंचों पर विकास की बनी योजना प्यारी,
नीचेवाले बना रहे हैं धनखेतों की क्यारी,
कटी धान की फ़सल मंच ने हंसकर टोपी तानी,
ऊपर होती मौज़ और नीचे होती क़ुर्बानी,

श्रम खरीदते नेता जनता रोटी को मुँह बाये,
'गान्धी जी ने यही कहा था'-कहकर झूठ छिपाये!

कैसे बिखरे धनखेतों में 'पंचशील' का गाना?
उठनेवाला चाह रहा है अन्तरिक्ष तक जाना!
गिरनेवाले को धरती का धूल भरा आंचल है,
रामराज का पाठ पढाना-'राजनीति का छल' है।

भोली जनता राजनीति की हलचल से घबड़ाये,
नेता अपने में उलझे हैं राह कौन दिखलाये?

लगी हुई है आग चतुर्दिक दुनिया जलनेवाली,
जला रहा विज्ञान मनुजता की संचित हरियाली।
जिनकी ऊपर पहुंच वही बारूद बनानेवाले,
कैद किये बैठे मंज़िल को राह बतानेवाले!

पहुंच नहीं है दिल्ली तक कवि कैसे कलम चलाये?
नंगी, भूखी आज़ादी का क्या शृंगार सजाये?

चिल्लाओ मत ठोस, गगन तक धूम्रशिखा छाई है,
ऊपर ऊँचे मंच और नीचे गहरी खाई है!
पीस रहा है न्याय मगर नेताजी कैसे मानें?
दिखलाने के लिये लगे हैं चर्खा रोज चलाने।

उजली खादी कैसे दिल के काले दाग छिपाये?
जनता का दिल खौल रहा है पता न कुछ हो जाये!

बना शहीदों के स्मारक कहते हो 'सेवा है' ,
पार उतरते नेता, जनता चुका रही खेवा है।
मन्दिर बनते भगवानों के भक्त भले मर जायें,
फ़सल उगानेवाले भूखे, नाज भले सड़ जायें!

जनता करती प्रश्न, किसी नेता को कैसे भाये?
यह नंगा जनतन्त्र भला क्यों नहीं अधिक चिल्लाये?

स्वतंत्रता को तुम प्रचार का साधन बना रहे हो,
आज़ादी की सालगिरह पर तोपें उड़ा रहे हो!
जनता मौन नहीं बैठेगी, शोषण की सीमा है,
मनुष्यता का दीप कभी भी हुआ नहीं धीमा है!

 नेता तो वह जो जनहित को जीवन भेंट चढ़ाये,
 मरे अगर तो कोटि-कोटि का 'बापू' बनकर जाये!