भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कैसे बोलूँ मैं किसी के सामने / जहीर कुरैशी
Kavita Kosh से
कैसे बोलूँ मैं किसी के सामने
शब्द गूँगे हैं ख़ुशी के सामने
तर्क का सिक्का नहीं चल पाएगा
प्यार की जादूगरी के सामने
जो भी आया वो ही जल-याचक मिला
सिर्फ़ प्यासे हैं नदी के सामने
हँस पड़े थी जिस जगह रोने की बात
लोग रोए हैं हँसी के सामने
आ गया है पेट भरने का सवाल
पद्म-भूषण -पद्म-श्री के सामने
टिक नहीं पाया तिमिर सौ साल का
एक पल की रोशनी के सामने
आज भी नत है मशीनो का समाज
हाथ की कारीगरी के सामने