राग तैलंग, तीन ताल 1.7.1974
कबलौं ऐसे स्याम! सरैगी।
प्रियतम! तुव विरहानल में कबलौं यह चेरि जरैगी॥
मनकी यह दुरवस्था प्यारे! का कबहूँ न टरैगी।
दरस-सुधासों कबहुँ कि यह मुरझाई कली खिलैगी॥1॥
झुरि-झुरि ही सब वयस गयी, का कबहुँ कृपा बरसैगी।
तरसि-तरसि झुरसी यह जीवन-लता कबहुँ सरसैगी॥2॥
जुग-जुग सांे जो ललक लगी है, सो कब स्याम फलैगी।
नयनन की यह दरस-तरस का प्रीतम! कबहुँ बुझैगी॥3॥
जनम-जनम की प्रीति प्रानधन! कब रतिरस उलहैगी।
रसि-रसि सो रस-सुधा स्याम! तन-मन की सुधि विसरैगी॥4॥
चहों न मैं कोउ सिद्धि तदपि का निज निधि हूँ न मिलैगी।
अपनीकों अपनावहुगे तो खरभर सबहि मिटैगी॥5॥