भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कोई नेज़ा न ढाल बांधा है / सुशील साहिल
Kavita Kosh से
कोई नेज़ा न ढाल बाँधा है
एक जलता मशाल बाँधा है
उसने तेरा जवाब पाने को
पोटली में सवाल बाँधा है
ज़िन्दगी नाचती कहरवे पर
वक़्त ने एकताल बाँधा है
अपने गमछे से भूख को उसने
ऐसे ही सालों-साल बाँधा है
जिसकी बातों से फूल झड़ते हैं
उसने मुँह पर रूमाल बाँधा है
जल्दबाज़ी है जिसको जाने की
सारी दुनिया का माल बाँधा है
कोरोना वायरस ने ग़ज़लों में
मौत का ही ख़याल बाँधा है
आख़िरी वक़्त के लिए 'साहिल'
मैंने सूखा पुआल बाँधा है