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कोई संग हो मुझसे बेहतर कहाँ है / सिया सचदेव

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कोई संग हो मुझसे बेहतर कहाँ है
मुझे जो तराशे वो आज़र कहाँ है

फ़क़त तीरगी है दिलों में समायी
यहाँ रौशनी अब मय्यसर कहाँ है ..

तेरे नाम करनी थी ये ज़िंदगानी
मगर मेरा ऐसा मुक़द्दर कहाँ है

मोहब्बत की दस्तार तो मुंतज़िर है
मगर इसके लायक़ कोई सर कहाँ है

है दीवार ओ दर और छत इस मकाँ में
जिसे घर कहा जाए वो घर कहाँ है

गुनहगार आँखे छलकती नहीं क्यों
ख़ुदा की तलब है तो फिर डर कहाँ है

मेरे दिल के एहसास ज़िंदा है अब तक
सिया का है दिल कोई पत्थर कहाँ है