भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कोई हिस्सेदारी नहीं / जेन्नी शबनम
Kavita Kosh से
मेरे सारे तर्क
कैसे एक बार में
एक झटके से
खारिज़ कर देते हो
और कहते कि
तुम्हें समझ नहीं,
जाने कैसे
अर्थहीन हो जाता है
मेरा जीवन
जबकि परस्पर
हर हिस्सेदारी बराबर होती है,
सपने देखना
और जीना
साथ ही तो शुरू हुआ
रास्ते के हर पड़ाव भी साथ मिले
साथ ही हर तूफ़ान को झेला
जब भी हौसले पस्त हुए
एक दूसरे को सहारा दिया,
अब ऐसा क्यों
कि मेरी सारी साझेदारी बोझ बन गई
मैं एक नाकाम
जिसे न कोई शऊर है
न तमीज़
जिसका होना
तुम्हारे लिए
शायद जिंदगी की सबसे बड़ी भूल है,
बहरहाल
जिंदगी है
सपने हैं
शिकवे हैं
पंख है
परवाज़ है
मगर अब
हमारे बीच
कोई हिस्सेदारी नहीं !
(अप्रैल 21, 2012)