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कोरी कविता / माया मृग

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शब्द-शब्द-शब्द
तुम्हारे शब्द-मेरे शब्द
लोगों के शब्द
गुत्थम-गुत्था हो
उलझे रहते हैं।
कभी कुछ नहीं,
कभी कुछ नया नहीं,
हर बार
वही शब्द जाल,
वही कोरी
आडम्बरी कविता !
कभी मेरी-कभी तुम्हारी,
कभी लोगों की !