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कोलाहल के आंगन / हरीश भादानी
Kavita Kosh से
दिन ढलते-ढलते
कोलाहल के आंगन
सन्नाटा
रख गई हवा
दिन ढलते-ढलते
दो छते कंगूरे पर
दूध का कटोरा था
धुंधवाती चिमनी में
उलटा गई हवा
दिन ढलते-ढलते
घर लौटे
लोहे से बतियाते
प्रश्नों के कारीगर
आतुरती ड्योढ़ी पर
सांकल जड़ गई हवा
दिन ढलते-ढलते
कुंदनिया दुनिया से
झीलती हक़ीक़त की
बड़ी-बड़ी आंखों को
अंसुवा गई हवा
दिन ढलते-ढलते
हरफ़ सब रसोई में
भीड़ किए ताप रहे
क्षण के क्षण चूल्हे में
अगिया गई हवा
दिन ढलते-ढलते