कौआ मोबाइल और कांव कांव / नीरज नीर
अब नहीं आते कौए
चले गए
कौए की काँव-काँव से
अतिथि के आगमन का अनुमान
अब नहीं लगाता कोई.
आँगन भी तो नहीं रहे,
जहाँ बैठ कर बऊआ
कटोरी में दूध रोटी खाता था।
कौआ भी वहीँ मंडराता था,
अम्मा जी खिसिया कर फटकारती।
दादी कहती ये काग भुसुंडी हैं,
कौए के घर कौन-सी खेती होती है,
और एक टुकड़ा रोटी कौए की ओर उछाल देती,
कौआ भी नृत्य की मुद्रा दिखाता हुआ
काँव काँव करता रोटी का टुकड़ा उठाता
और उड़ जाता।
अब नहीं आते कौए चले गए.
हाँ, कोयल आती है अभी भी
कभी कभी।
सुनाई पड़ती है उसकी कूक
वसंत में ।
कोयल तो आप्रवासी है
इधर के बदलते परिवेश से
अभी नहीं हुई है परिचित
लेकिन कब तक आएगी कोयल?
आखिर कौन सेयेगा उसेक अंडे?
कहाँ छोड़ कर जायेगी वह अपने अंडे?
मोबाइल के टावर पर?
अब नहीं आते कौए चले गए
अतिथि भी तो अब नहीं आते
बिना बताये।
सभी के पास अब मोबाइल है।
कौआ मशीन बनकर
समा गया हमारी जेबों में।
कभी भी बज उठता,
मानो कौए की आत्मा चीत्कार कर रही हो
काँव काँव ...