कौन-सा तारा / रामगोपाल 'रुद्र'
वह कौन-सा तारा? सखे!
प्राची-दिशा-भू-भाल पर
लहरे तिमिर-कच-जाल पर
बन माँग का टीका सुभग
जो खिल रहा चक्रवाल पर
लघु लाल-सा; क्या कह रहा?
वह कह रहा ' भू-पुत्र मैं
कब ध्वान्त से हारा? सखे! '
तारा नहीं, वह ग्रह ललित,
मंगल-कलित, विद्रुम-वलित,
वह माँ मही का ही सुवन,
श्रद्धा-सहित-मति से चलित,
सर्वसहा-सा सह रहा
झोंके अनन्त, अनन्त के;
सच्चा सकलहारा, सखे!
तारे, सखे! गतिहीन हैं,
जड़वत् जलन से दीन हैं,
जो, देख ग्रह-गति को, बने
जलते तवे के मीन हैं;
ग्रह-ग्रह गतिग्रह लह रहा,
दृग टिमटिमाता रह गया
उडु-दल अफल सारा, सखे!
तुमको भूले लघु लग रहा
वह दूर से ज्यों टँग रहा
पर जग रहा सज्ज्योति से
अपनी लगन में पग रहा,
ख-तरंग को वह गह रहा;
कब क्रान्त-क्रान्त-जयिष्णु को
रजनी बनी कारा? सखे!