कौन कहता है कि हम बेसरो-सामाँ निकले / लाल चंद प्रार्थी 'चाँद' कुल्लुवी
कौन कहता है कि हम बेसरो-सामाँ<ref>ख़ाली हाथ</ref> निकले
बज़्म से आज भी हम हश्र-बदामाँ<ref>झगड़ा करके</ref> निकले
यह न हो ख़ाना-ए-दिल शहरे-ख़मोशाँ निकले
क्या ज़रूरी है कि जो क़तरा है तूफ़ाँ निकले
इब्ने-आदम<ref>आदम के बेटे</ref> की तरक्की का भरम टूट गया
हम जिन्हें शहर समझते थे बियाबाँ निकले
हमने सहरा की ख़मोशी को भी बख़्शा है कलाम
आप गुलशन से भी अंगुश्त-बदन्दाँ<ref>ठेंगा दिखाते हुए</ref> निकले
हिज्र की रात पे बरसात का होता था गुमाँ
अश्क़ भी आज मेरी शान के शायाँ निकले
वक़्त ने ख़ूब निकाले थे हमारे कस-बल
शुक्र ये है कि करम तेरे फ़रावाँ निकले
जा बसूँ आलमे-इम्काँ से परे जन्नत में
तेरी जन्नत न कहीं आलमे-इम्काँ निकले
मंज़िले-ज़ीस्त ने जब ढूँढना चाहा मुझको
हम ख़िज़ाँ में भी कहीं ग़र्क़े-बहाराँ निकले
आड़े आ जाता है अंगुश्ते-नुमाई <ref>अँगूठा दिखाने </ref> का ख़याल
वरना ये ज़िंदगी और हमसे गुरेज़ाँ निकले
तेरी रहमत का तो हक़दार नहीं मैं यारब
दे मुझे जितनी भी अब फ़ुर्सते-असियाँ<ref>पाप की फ़ुर्सत</ref> निकले
जिन को देखा था सितारों से उलझते शब को
सुबह देखा तो हमारे ही वो अरमाँ निकले
ख़ाक-पोशी ही गुनाहों का सबब है ऐ ‘चाँद’
ज़िन्दगी ख़ाक के परदे से भी उरियाँ <ref>नग्न</ref>निकले