क्या कर्म का विधान है / सुरेखा कादियान ‘सृजना’
कहीं तो क्रूरता हँसे
कहीं दर्द का वितान है
समझ नहीं है आ रहा
क्या कर्म का विधान है
हर पल जो हैं सिसक रहे
जुबाँ भी बेजुबान है
उन आँसूओं का तुम्हें
दाता नहीं क्यूँ ध्यान है
तिरी रहमतों को खोजते
दर्द में भी हँसे हैं जो
उजड़ चुके कभी के पर
यूँ देखो तो बसे हैं जो
वो कर्मों के अधीन हैं
पर तू तो शक्तिमान है
क्यूँ आ रही सदा से तू
यूँ बन रहा अनजान है
है कैसा खेल तेरा ये
पापियों की जय है क्यूँ
ये कैसा नाच ज़ुल्म का
अस्मिता को भय है क्यूँ
राम भोग रहा है राज
वनवास सीता भोगती
जीती लक्ष्मण रेखा में
हर साँस उसको कोसती
यही है ज़िन्दगी अग़र
तो मौत किसको कहते हैं
क्या मरण दहन है क्या
वो उम्र भर ही दहते हैं
नारी का अपमान कर
जो लक्ष्मी को हैं पूजते
उनके कर्मों का हिसाब
भला क्यूँ नहीं तुम सूझते
हर साल ही इस धरती पर
कहने को रावण जलता है
पर देखिये तो ध्यान से
सब में रावण पलता है
कोई चीखता है दर्द से
कोई दे के दर्द हँस रहा
कोई सच तेरे ही सामने
किसी झूठ में है फँस रहा
कर्मों का विधान है तो
ये किस जनम के पाप बोल
तू आज मेरे सामने
हर बात का हिसाब खोल
जो सह सके ये आत्मा
तू दर्द उतना ही तो दे
ये कब कहा कि दुःख मेरे
मौला मेरे तू मुझसे ले
गिला नहीं मुझे कोई
तू हर घड़ी इक जंग दे
मग़र ये आरजू भी सुन
हर लम्हा तेरा संग दे