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क्या क्या न तेरे सदमे से बाद-ए-ख़िजाँ गिरा / शेख़ अली बख़्श 'बीमार'

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क्या क्या न तेरे सदमे से बाद-ए-ख़िजाँ गिरा
गुल बर्ग सर्व फ़ाख़्तास का आशियाँ गिरा

लिखने लगी क़ज़ा हो हमारी फ़तादगी
सौ बार हाथ से क़लम-ए-दो-ज़बाँ गिरा

जब पहुँचे हम किनारा-ए-मक़सूद के क़रीब
तब नाख़ुदा जहाँ से उठा बादबाँ गिरा

मूबाफ़-ए-सुर्ख़ चोटी से क्या उन की खुल पड़ा
एक साइक़ा सा दिल पे मेरे नागहाँ गिरा

ता आसमाँ पहुँच के हुई आह सरनिगूँ
या रब हो ख़ैर फ़ौज-ए-अलम का निशाँ गिरा

उठ कर चला जो पास के उन के तो घर तलक
हर हर क़दम पे ज़ोफ़ से मैं ना-तवाँ गिरा

देखा जो दश्त-ए-नज्द में हाल-ए-तबाह-ए-कै़स
महमिल से लैला कूद पड़ी सारबाँ गिरा

दोज़ख़ पे क्यूँ न हो दिल-ए-‘बीमार’ ताना-ज़न
आतिश से इश्क़ की है पतिंगा यहाँ गिरा