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क्या तुम भूल पाओगे / मनीषा जैन
Kavita Kosh से
तुम थक कर आए हो घर
क्या तुम उस स्त्री को भूल पाओगे?
जो अपने हाथों से सजाती है
तुम्हारे सपनीले घर
क्या तुम्हारी आँखें
उसे ढ़ूंढती हैं
जो बिछाती थी पलकें
तुम्हारे इंतजार में
क्या तुमने कभी उन आँखों में झांका
जिनमें तुम्हारी ही तस्वीर बसती है
तुम यह देख कर हैरान हो जाओगे
वह स्त्री जब भी आईना देखती थी
तुम ही नज़र आते थे आईने में
अब जब तुम थक कर घर आओगे
फिर उसे ना पाओगे
तब तुम क्या उसे कभी भूल पाओगें।