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क्या थे क्या हो गये। / हरिऔध

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भोर-तारे जो बने थे तेज खो।
आज वे हैं तेज उन का खो रहे।
माँद उन की जोत जगती हो गई।
चाँद जैसे जगमगाती जो रहे।

पालने वाले नहीं अब वे रहे।
इस लिए अब हम पनप पलते नहीं।
डालियाँ जिनकी फलों से थीं लदी।
पेड़ वे अब फूलते फलते नहीं।

धूल उन की है उड़ाई जा रही।
धूल में मिल धूल वे हैं फाँकते।
सब जगत मुँह ताकता जिनका रहा।
आज वे हैं मुँह पराया ताकते।

चोट पर है चोट चित्त को लग रही।
आज उन का मन बहुत ही है मरा।
धूम जिन का धूम धामों की रही।
धाक से जिन की धसकती थी धरा।

जो बनाते ही बिगड़तों को रहे।
आप अब वे हैं बिगड़ते जा रहे।
रख सके जो लोग मुँह लाली सदा।
आज हैं वे लोग मुँह की खा रहे।

जातियाँ मुँह जोह जिनका जी सकीं।
इन दिनों हैं आग वे ही बो रहीं।
जग न लेता साँस जिनके सामने।
आज उनकी साँसतें हैं हो रहीं।

फूल जिन पर था बरसता सब दिनों।
इन दिनों वे धूल से हैं भर रहे।
राज पाकर राज जो करते रहे।
काम अब वे राज का हैं कर रहे।

मिल रही है न खाट टूटी भी।
चैन बेचैन बन न क्यों खोते।
आज हैं फूट फूट रोते वे।
जो रहे फूल-सेज पर सोते।

बन गये हैं औगुनों की खान वे।
गुन अनूठे हाथ से छन छन छिने।
डालते थे जान जो बेजान में।
आज वे हैं जानवर जाते गिने।

हैं कलेजा पकड़ पकड़ लेते।
औ सका आँख का न आँसू थम।
क्या कहें कुछ कहा नहीं जाता।
क्या रहे और हो गये क्या हम।