क्या नाम दूँ क्या उपमा दूँ / नरेश चंद्रकर
एक आदमी को साइकल या कभी बाइक पर
धीमी गति से चलते देखा है
एक छोटा-सा
ऐंठा हुआ
कसकर बटा हुआ रस्से का टुकड़ा हाथ में
जैसे वह ज़ंज़ीर या
साँकल
या चाबुक का काम लेता हुआ
उस सोटे से
मुहल्ले में इधर-उधर
गलियों में
घर के मुहानों पर
जूठन अबेरती पगुराती घास-फूस कचरे से अटे मैदाननुमा
रिक्त पड़े ज़मीन के
खुले टुकडों में बैठी गायों को
सुबह शाम हकालते दिखा
यह भी दिखा
टूटी सड़क वाली सँकरी गली में
गोबर से सनी राह पर
वे राहें जो बनी हैं
गोबर सोसायटी में
जैसे प्रतीक कहता है
गोबर से सनी उन राहों पर
होता है उन गायों का ठीया
या कहें :
ऊपर जिस बाइक या सायकिल सवार का ज़िक्र है, उसका घर
या कहें :
देसी दूध की डेयरी
और विशेष बात यह
बछिया पर भी होती है
उस आदमी की आँख
और
बछिया की पीठ पर हवा में घूमता
उस आदमी के हाथ का
चलता है सटाक से
रस्से का सोटा
यह भी दिखा
दुहने के बाद
चारा ढूँढ़ने
सानी-पानी स्वयं करने
स्वयं अपना उदर भरने छोड़ी जाती हैं वे गायें
आसपास के मुहललों गल्लों-ठेलों
होटलों घरों में
दूध मुहैया कराती
भटकती
घिसटती चलती
खुद्दार
स्वावलंबी भरे स्तनों वाली गायों को
क्या नाम दूँ क्या उपमा दूँ
जैसे ही
दूध दूहने डेयरी के पास ले जाने
सोटे से पिटती दिखती है वे गायें
शब्द सड़क पर चिपट जाते हैं !!