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क्या फर्क पड़ता है / विवेक निराला
Kavita Kosh से
क्या फर्क पड़ता है
एक आदमी अपने चार बीघा
खेतों में हाड़ तोड़ मेहनत
के बाद हासिल कर्ज़ अपने झोले में
सहेजे आत्मघात की तरफ
चला जा रहा है।
एक औरत अपने लम्बे
विश्वास से बाहर
लुटती-पिटती लौट रही है
भीतर के दुःखों को सम्हालती।
एक बच्चा जो
कूड़े में खेल रहा था
बम फटने से मारा जाता है
जेब में तीन चिकने पत्थर लिए।
एक लड़की जो
दुनिया में आने की सज़ा
पाती है और नीले निशान
अपनी फिरोजी फ्रॉक से छिपाती फिरती है।
क्या फर्क पड़ता है!
हमारे समय का बीज वाक्य है
यह हमारे समय का
अन्तिम सत्य
किसी से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता
तमाम गाजे-बाजे और
इक्कीस तोपों की सलामी से
हमें भी क्या फर्क़ पड़ता है।