क्या बात है हर बात का लुत्फ़ आता है / रतन पंडोरवी
क्या बात है हर बात का लुत्फ़ आता है
रोता हूँ तो बरसात का लुत्फ़ आता है।
होती है तसव्वुर में भी उन से बातें
फ़ुर्क़त में मुलाक़ात का लुत्फ़ आता है।
उल्फ़त की हिकायात को धोखा समझो
हर रिश्ते को टूटा हुआ रिश्ता समझो।
हालाते-ज़माना ये बताते हैं 'रतन'
अपने को भी दुनिया में न अपना समझो।
ज़ाहिर की महब्बत को फ़साना कहिये
अल्फाज़े-मुलाइम को बहाना कहिये।
जब जिस्म भी अपना नहीं अपना हरगिज़
किस मुंह से यगाने को यगाना कहिये।
हर शय में वही जाने-तमन्ना देखा
पर्दों में भी सौ बार हुवैदा देखा
उस आंख को हम आंख समझते हैं 'रतन'
जिस ने वो नज़र न आने वाला देखा।
दर अस्ल मिरे होने ने खोया मुझ को
दर अस्ल उभरने ने डुबोया मुझ को
इसियां की क़ियामत को कसाफत समझा
देखा तो इसी मैल ने धोया मुझ को।
क़ाबा की ज़रूरत है न बुतखाने की
मूसा की न कुछ तूर के अफ़साने की
इरफाने-हक़ीक़त की तजल्ली के लिए
हिम्मत मुझे दरकार है परवाने की।
मरने से हर इंसान को डरते देखा
हर वक़्त दुआ जीने की करते देखा।
जीना भी तो आसान नहीं है कोई
जीने के लिये मौत को मरते देखा।
हर जुज़्व में कुल जलवा-नुमा मिलता है
बन्दे में निहां नूरे-ख़ुदा मिलता है
देखे भी कोई गौर से आंखों से 'रतन'
आग़ाज़ में अंजाम छुपा मिलता है।