है यही क्या नियति अपनी
क्या यही चलता रहेगा?
एक झोंका था हवा का
वह गया
जाने किधर
खुशबुएँ
किलकारियाँ भरतीं
गयीं पल में बिखर
कह गयी फिर लहर
कल-कल
भँवर उलझन धर गए
टूटते-गिरते किनारे
हाथ मलते रह गए
कौन फिर
वासन्तिका से
लौट आने की कहेगा?
मैं खड़ा हूँ क्षितिज पर
आश्वस्तियों के पुल तने
जुगनुओं के दल कहीं हैं
हैं कहीं कुहरे घने
बाँस-वन से
उठ रही हैं
चीखती चिनगारियाँ
सिर कटे हैं
धड़ कटे हैं
नाचती हैं आरियाँ
कब तलक
पानी हमारे
शीश के ऊपर बहेगा
नफरतंे हैं
दहशतें हैं
आदमीयत है कहाँ?
नीतियाँ बहरी बहुत हैं
न्याय है अन्धा यहाँ
पत्थरों से फोड़ते सिर
दम नहीं अधिकार में
प्यार की कीमत कहाँ है
रूप के बाज़ार में
आबरू ईमान की
लुटती
कोई कब तक सहेगा?
12.5.2017