भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

क्यों अश्रु न हों श्रृंगार मुझे! / महादेवी वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रंगों के बादल निरतरंग,

रूपों के शत-शत वीचि-भंग,

किरणों की रेखाओं में भर,

अपने अनन्त मानस पट पर,

तुम देते रहते हो प्रतिपल, जाने कितने आकार मुझे!

हर छबि में कर साकार मुझे!



मेरी मृदु पलकें मूँद-मूँद,

छलका आँसू की बूँद-बूँद,

लघुत्तम कलियों में नाप प्राण,

सौरभ पर मेरे तोल गान,

बिन माँगे तुमने दे डाला, करुणा का पारावार मुझे!

चिर सुख-दुख के दो पार मुझे!



लघु हृदय तुम्हारा अमर छन्द,

स्पन्दन में स्वर-लहरी अमन्द,

हर स्नेह का चिर निबन्ध,

हर पुलक तुम्हारा भाव-बन्ध,

निज साँस तुम्हारी रचना का लगती अखंड विस्तार मुझे!

हर पल रस का संसार मुझे!


मैं चली कथा का क्षण लेकर,

मैं मिली व्यथा का कण देकर,

इसको नभ ने अवकाश दिया,

भू ने इसको इतिहास किया,

अब अणु-अणु सौंपे देता है, युग-युग का संचित प्यार मुझे!

कह-कह पाहुन सुकुमार मुझे!


रोके मुझको जीवन अधीर,

दृग-ओट न करती सजग पीर,

नुपुर से शत-शत मिलन-पाश

मुखरित, चरणों के आस-पास,

हर पग पर स्वर्ग बसा देती धरती की नव मनुहार मुझे!

लय में अविराम पुकार मुझे!

क्यों अश्रु न हो श्रृंगार मुझे!