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क्यों मैं रोई / उर्मिल सत्यभूषण
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आज 27वीं पुण्यतिथि है तुम्हारी
भोग लगाने को तुम्हारी स्मृतियों को
बेटी ने तुम्हारी, किया है
आयोजन लंगर की, शीत
की दुपहरी में
न्यौता है गरीब गुर्बों को
तृप्त हो तुम्हारी क्षुधित
आत्मा।
स्थिरता मिले तुम्हारे
भटकाव को।
कुछ नहीं किया मैंने
न प्रार्थना, न क्रंदन
न आचमन, न नमन
क्यों करूँ मैं कुछ
उसके लिये जो छोड़
गया मुझे अकेला
जूझने के लिये युद्ध में।
लाद गया अपने हिस्से
के सारे काम मुझ पर।
लेकिन मैं रोई क्यों?
तुम तो मेरी यादों के,
खोलकर द्वार आये नहीं
मुझसे डरते रहे
पर मेरी आँख
झिलमिलाई क्यों?