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क्योंकि.... हर घर कुछ कहता है / तिथि दानी ढोबले

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घर छोड़ कर चले जाते हैं छोड़ने वाले
पर उनकी निशानियां अपने सर माथे लिए रोता रहता है घर
उसके आंसुओं के हार्मोन से
मद्धिम पड़ जाता है उसकी त्वचा का रंग रोगन
जाने वाले ले जाते हैं तुलसी, गंवारपाठा, मिर्ची के पौधे
छिन जाती है रसोई की हरियाली
फर्नीचर अपने शरीर का उधड़ना छिपाता है धूल धूसरित हो कर
आंगन में लगे गुलाब, लिली, ट्यूलिप नहीं हो पाते वयस्क
बरामदे में लगा आईना भूल जाता है
सुबह की रोशनी के साथ खिलखिलाना
खाली बिस्तर अब नहीं बांटता किसी से उसकी ख़ुशी

पुराने घर को नया कर देने की कोशिश में
और भी अनावरित होती है उसकी गहरी उदासी
इसलिए वह करता है विद्रोह
घर को जो परिवार होता है सर्वाधिक प्रिय
अपने जीते जी मिटने नहीं देता उसकी कोई निशानी
जैसे,
घर ने अपने सीने पर अब भी लटका रखा है
मिट्टी की घंटियों का मैडल
तूफानी हवाएं, मूसलाधार बारिश और भीषण गर्मी
उसे हौले से छू कर अभिवादन करते हैं
एक बार कुछ अजनबियों की टोली आई उसे निकालने
घर किसी नए आगंतुक को सौंपने,
लेकिन घर हथौड़े की मार खा कर भी ज़िद पर अड़ा रहा
फंसाए रहा उसे अपने सीने के सुराख़ों में ।
घर जानता था ,इन मिट्टी की घंटियों की खनक में
अब भी बसता है जाने वालों की आत्मा का कुछ अंश
घर का हर अंग अपने घावों पर
जाने वालों की यादों का मरहम लगाता है
खुरच कर निकालने की हर कोशिश के बावजूद भी
बाथरूम के टाइल ने नीली बिंदी को
कस कर लगाए रखा है अपने गले।