क्रान्ति की प्रतीक्षा-2 / कमलेश
तुममें सदा इच्छा रही है कि राह से किसी रात
भटक जाओ, तुम कहते हो, तुम्हारे पैर
बिवाइयाँ फटने से लहू-लुहान होते रहे हैं
बरसों से, तुम्हारा भोजन-पात्र घिसते-घिसते
छलनी होता गया है, अब उसमें
कोई भी द्रव नहीं अँटता, तुम कहते हो
तुम्हारी ताक़त क्षय होती गई है
धीरे-धीरे, अब तुममें कोई
लिप्सा नहीं रही, कोई
अभीप्सा नहीं रही, अब तुम जान गए हो
किन अँगुलियों से संगीत बजता है
बाजे पर, किस आवाज़ पर मजमा
इकट्ठा होता है और बोली चढ़ती ही जाती है
कारवाँ के सामानों पर, फिर तुमने देखा
किस तरह आवाज़ें धीमी हुईं, बोलियाँ
लगाने वाले चौकन्ने हुए, क़ीमतें घटीं
और सफ़र-साथी एहसानफ़रामोश हुए--
जैसे विश्वास था तुम्हें कि यह शब्दावली
यहाँ भी लागू होती है ।
तुम देखो साम्राज्यों का पतन और
सभ्यताओं में रोगों का जनमना, बढ़ना,
अब तुम जानते हो बरा नहीं पाओगे
किसी भी सामूहिक सामर्थ्य से
सारे घुन, तुम्हें मालूम है सँकट
इतना सरल नहीं जितना शब्दों से
लगता है, तुमने शब्दों की सरलता
वरण की है, पर संसार कहीं कोसों दूर
जटिल विकलता है ।