भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
क्वाँर की बयार / अज्ञेय
Kavita Kosh से
इतराया यह और ज्वार का
क्वाँर की बयार चली,
शशि गगन पार हँसे न हँसे--
शेफाली आँसू ढार चली !
नभ में रवहीन दीन--
बगुलों की डार चली;
मन की सब अनकही रही--
पर मैं बात हार चली !
इलाहाबाद, अक्टूबर, 1948