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क्षणिकाएँ / प्रियंका गुप्ता

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1
तुमने
शब्द कहे थे;
मैंने
अर्थ जी लिया।

2
सूरज
कतरा-कतरा पिघलके
बह गया,
धरती बूँद बूँद
पीती गई;
ऐसे ही तो
सृष्टि बनी।

3
मुझे
गीत बना गा लेना,
या
नज़्म की तरह
लिख लेना;
मैं हवा कि तरह
तुम्हारे आसपास रहूँगा,
बिखर जाऊँगा
खुश्बू की तरह;
इश्क़ करने से ज़्यादा
बेहतर होगा
इश्क़ में घुल जाना।

4
उसने धरती पर
फसल लिखी,
पौधों में
ज़िन्दगी पढ़ी,
और एक दिन
आसमान ताकते हुए
उसने मौत चुनी;
इस तरह
कहानी मुक़म्मल हुई।

5
ज़िन्दगी मुझे
विष देती रहे
तुम छू के मुझे
अमृत कर देना;
खेल ऐसे ही तो जीतते हैं न?

6
कई बार जीना पड़ता है
बेमक़सद, बेवजह
बेमानी हो चुकी ज़िंदगी को भी
जैसे हम अक्सर पढ़ते हैं कोई कविता
बस शाम गुज़ारने को।

7
कितना अच्छा होता
गर ज़िंदगी होती
कोई कविता
सुना लेते किसी को
या गुनगुनाते कभी किसी गीत सा;
पर ज़िंदगी तो
बस एक सूखी रोटी सी है
बेहद कड़क बेस्वाद,
चबाओ तो कमज़ोर दाँत टूट जाते हैं।

8
ख़्वाब तो होते हैं
बस किसी अंत-विहीन क़िताब-से;
या फिर
कोई अनंत कहानी;
या अगर
ख़्वाबों की तुलना
क्षितिज से करूँ तो कैसा हो...?
बस देखो और छू न पाओ।

9
फुदकती धूप
जाने कब
गोद में आ बैठी
दुलराया कित्ते प्यार से
ज़रा-सी आँख लगी
और ये जा, वह जा;
चंचल खरगोश कब एक जगह टिके हैं भला...?

10
आँखें
अभ्यस्त हो गईं हैं
नमी और सीलन की
ताज़ा हवा से दम घुटता है
सोचती हूँ
इन्हें किसी बक्से में रख दूँ
बंद दरवाजों के पीछे से
किसको दिखती है दुनिया...?

11
यादें
कभी यूँ भी होती हैं
मानो,
किसी सर्द रात में
बर्फ़ हो रहे बदन पर
कोई चुपके से
एक गर्म लिहाफ़ ओढ़ा जाए।

12
यादें
कभी दर्द होती हैं
और कभी
किसी ताज़ा घाव पर
रखा कोई ठंडा मरहम।

13
यादें
मानो,
कभी जल्दबाज़ी में
सर्र से छूटती कोई ट्रेन
भाग के पकड़ो
वरना फिर
जाने कब पकड़ पाएँ?

14
यादें
कभी सर्दी में
बदन पर पड़ा बर्फ़ीला पानी;
या फिर
किसी हड़बड़ी में
जल गई उँगली पर
उगा एक फफोला;
तकलीफ तो होती है-
है न?

15
करती रही रोज़
जोड़-घटाना
गुणा-भाग
जतन किए बहुत
पर फिर भी अपने हाथ
कुछ न आया
सिवाय ज़ीरो के
बहुत हिसाब-किताब लगा लिया
ज़िन्दगी,
तेरे पास
मेरा बकाया बहुत है।