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क्षमा करो / शक्ति चट्टोपाध्याय
Kavita Kosh से
टेबिल-पहाड़ के माथे पर
खिल उठा है रंग का कलश
रोज़ ही खिलता है
रोज़ होती है बारिश लगातार,
टपटप टपटप बिखर जाते हैं शब्द
शब्दों के समुद्र में,
जहाँ शब्दों से बढ़कर है रंग
रंग से बढ़कर माधुर्य
वहाँ उठ आते हैं मूल शब्द
तट की रेत पर रखते हैं सीने के दाग़
लार से भर देते हैं मुँह
कन्धे पर सिर रख कहते हैं:
क्षमा करो ... हम और नहीं बज सकते!
मूल बँगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी