खण्ड-7 / आलाप संलाप / अमरेन्द्र
‘‘ये क्या ? कहते-कहते आँसू छलके हैं आँखों में
कैसी छिपी हुई चिनगारी अब तक है राखों में
दिखते तो हो शिला-शील, पर वचन बर्फ-सा शीतल
चीता का अभिनय करने में निकले तुम तो चीतल
तुमसे क्या उम्मीद करूँ मैं, जग को तुम बदलोगे
परोपकार के उस अभिनय में पाप-अयश को लोगे
अगर काठ हो वही दिखो तुम, पाहन नहीं दिखो तुम
लेखक हो, तो सही-सही ही बातें सभी लिखो तुम।’’
‘‘सुनो-सुनो, क्या मार्ग हमेशा होता कविता-धन है
क्या औदार्य, धैर्य, किलकिंचित होता नहीं वचन है
क्या जड़ता, चिन्तन, अमर्ष, निर्वेद कथन से बाहर
मेरे ये सब धृति, विषाद, ये वेग, ग्लानि ये गत्वर
सही-सही क्या कथन नहीं हैं, भले भारती हो ना
सात्वती क्या श्रेष्ठ नहीं है, मेरा हँसना-रोना
क्या समझोगे, किस कारण नर कहने से बचता है
हवा-गगन के फूलों पर किरणों का घर रचता है
मैं भी यह संकल्प लिए ही आया था सच बोलूँ
अभिधा के आँगन में बैठे अन्तरमन को खोलूँ
पर कितना लाचार विवश हूँ; कुछ कहता, कुछ होता
वही तिमिर से घिर भी जाता, जो किरणों को ढोता
मुझे क्षमा करना, अभिधा में कहना सभी कठिन है
घेर रहे हैं स्वप्न नींद के, भले उबलता दिन है
अंधियाली रातें हैं, काली चट्टानों का देश
स्याह सिन्धु की काली लहरें, खुले मृत्यु के केश
तब भी आँखें देख रही हैं अपना टूटा यान
धीरे-धीरे सागर पर; ज्यों दिनमणि का अवसान
निर्वासित हूँ जन्मभूमि से, किसी देश के पथ पर
ऊपर है आकाश उमड़ता, नीचे भीषण जलघर
पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर और युगों के बाद
पिघल रहा है जमा हुआ जो, कल्पों का अवसाद
उधर सिन्धु के पार कौन ये यम-से खड़े हुए हैं
आगे-पीछे और मध्य भी पीछे पड़े हुए हैं
मेरा टूटा यान सिन्धु में नीचे उतर रहा है
जल में मेरा तेज, अंग का कण-कण बिखर रहा है
रह-रह कर बस यही स्वप्न कि लहरें निगल रही हैं
टूट-टूट कर मुझ पर ही चट्टानें फिसल रही हैं
नीले पत्थर की समाधि है जल के ऊपर मेरी
काजल से है पुती कोठरी, काया: रात अंधेरी
फिर हठात् ही खुलती आँखें; जल से होता ऊपर
सन्यासी-सा चलता रहता, अलग अकेला भू पर
जिसको जी में जो आता है, कह देता, सुन लेता
मैं रण में हारा-हारा-सा; लगता जगत विजेता
इतने तीर बिछे हैं तन पर, इतना बहा लहू है
मेरे ही शोणित से लथपथ, कुरुक्षेत्रा का भू है
बहुत चाहता इन्हें भुला दूँ: स्वप्नजाल की बातें
लेकिन लौट-लौट फिर आतीं दिन के पीछे रातें
कभी चीखती बहन चिता पर कभी चीखता भाई
मैंने आँखों से देखी है, जली हुई अमराई
जली हुई कोयल की काया, पंचम स्वर का शव
बस शृंगाल के और स्वान के व्यूहबद्ध हैं रव
और वही फिर जलावत्र्त है, उपलाता; फिर नीचे
आखिर ऐसा स्वप्न भयावह, क्यों मेरे है पीछे
जगता हूँ, ले उन्हीं स्वप्न को, सोता हूँ ले उनको
भूला रहता हूँ अपने को, सच के अखिल भुवन को
तब ऐसे में तन का, मन का बल टूटा-सा लगता
अपना वह संकल्प दिवस का, है छूटा-सा लगता
सच-सच बोलूँ, ऐसे में बस, कविता साथ निभाती
छाए हुए अंधेरे में ज्यों, जलती हो संझवाती
कभी नहीं सोचा कि लय से कहीं हटी है कविता
इस खेमे या उस खेमे में, हुई बँटी है कविता
मैंने कविता को सीमा से बाहर खींच लिया है
सच्चे मन के ही आँसू से इसको सींच लिया है
जीवन तो है बँटा हुआ ही, कविता को क्यों बाँटूं
भूमंडल जितना बँट जाए, सविता को क्यों बाँटूं
मेरी कविता खुली धूप है खुली चाँदनी निर्मल
दल के दलदल से ऊपर; ज्यों, खिला हुआ हो शतदल
मुक्त नहीं जिसका कि मन है, मुक्त नहीं हैं आँखें
उसके लिए तो कविता मेरी बंद किए हैं पाँखें
लेकिन मुझमें भरती रहती नई दीप्ति, आभा को
सृजन और संकल्प समेटे, दोनों की द्वाभा को
उस क्षण में जैसा मैं होता, उतना ही मैं सच हूँ
अमृत की शक्ति से पूरित, उदरकुंभ में कच हूँ
बाकी तो सत स्वांग मंच पर, दर्शक को दिखलाने
या अपने टूटे मन को ही अभिनय से बहलाने
क्यों मैं तुमसे झूठ कहूँ, मैं निर्भय सदा अकेला
जीवन का मेला है, इसमें तरह-तरह का खेला
लेकिन जब रचता हूँ कविता, मेरा रूप निखरता
रवि-प्रकाश से जमा कुहासा जा कर कहीं बिखरता
ऋषि का मन और दृष्टि उसी की, अद्भुत है यह कविता
तिमिर देश का उदर फाड़कर ऊपर आता सविता
चाहे जितना दीन-हीन हूँ, जितना लगूँ फकीर
कविता मेरे अगर साथ है, मैं तो शाह-अमीर।’’
‘‘तुम अपने को जो भी समझो, दुनिया क्या कहती है
कहते अपने को अमीर और फटी जेब रहती है
भूल गये भाई को लेकर कितना रहे भटकते
कोई स्वप्न भयानक-सा तुम उन दिवसों में लगते
कैसा था वह काल निठुर, क्या भूल गये अमरेन्दर
तम का था साम्राज्य उजागर; डूबा हुआ निशाकर।’’