भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खण्ड-9 / सवा लाख की बाँसुरी / दीनानाथ सुमित्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

161
अंग्रेजी आती नहीं, हिन्दी अति कमजोर।
फैशन ही इफ़रात है, दिल यह माँगे मोर।।

162
राजा ने हथिया लिया, ठग के सारा राज।
महल बिराजे हर घड़ी, करे न कोई काज।।

163
दर्द समेटे चल रहा, आहें मेरी मीत।
इसीलिए तो बन ग़या, जीवन मेरा गीत।।

164
इसी तरह हँसती रहो, पाले दिल में नेह।
बरसो यूँ ही प्यार बन, जैसे बरसे मेह।।

165
दोपहरी यह जेठ की, जला रही है बाग।
बरस रही चारों तरफ, आग, आग बस आग।।

166
चलना तेरा काम है, चलना मेरा काम।
जो रुकता इस विश्व में, समझो काम तमाम।।

167
बादल सावन के सुनो, खोज रहा संसार।
प्यास बुझाओ भूमि की, दो शीतल बौछार।।

168
बेटी होती लाडली, मुस्काती दिन रैन।
जिसे देख कर जनक के, तृप्त हो रहे नैन।।

169
जीनी है यह ज़िदगी, हँसी, खुशी भरपूर।
इस कारण हर दर्द को, रखे सुमित्तर दूर।।

170
मीरा, तुलसी, सूर को, छूना मुश्किल काम।
पर लिखना मत छोड़ना, मत करना विश्राम।।

171
वृद्ध जनों को चाहिए, सदा रहें वे मौन।
बिन सत्ता के पूछता, सकल विश्व में कौन।।

172
मोबाइल ही प्रेम है, मोबाइल संसार।
अब इससे रहना परे, लगता है दुश्वार।।

173
दोनों दो करवट रहे, गुजरी सारी रात।
व्यर्थ गगन, छाई घटा, व्यर्थ गई बरसात।।

174
अंतिम दम तक मैं लिखूँ, मुक्तक, दोहा, गीत।
भला लगे पढ़ लीजिए, बुरा न पढ़िए मीत।।

175
लिखने से मत रोकिए, उड़ जायेंगे प्राण।
रचना मेरे रक्त का, है समग्र अरमान।।

176
बरसों से लिखता रहा, मगर न चाहा मान।।
लिखते खूब सुमित्र जी, यही बनी पहचान।।

177
कजरा तेरे नैन का, सबसे प्यारा रंग।
जैसे भँवरा गुनगुना, हो चंदा के संग।।

178
सजा-धजा कर रख लिया, स्वर्णिम हृदय मकान।
आओ इसमें प्रेम से, दो मुझको सम्मान।।

179
अब मुझको क्या चाहिए, मैं सुख-दुख के पार।
अस्सी को छूने चला, देख सकल संसार।।

180
जितना मुझको मिल गया, हर जन को मिल जाय।
यह है मेरी कामना, सुख हर घर में आय।।