खण्ड: अखण्ड / पयस्विनी / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
तोँ गिरिकेँ अणु, अणुकेँ पुनि परमाणु, तकर पुनि खण्ड-प्रखण्ड
बनबह गिरिकेँ शिला, शैलकेँ कंकड़, सैकत - कण शत-खण्ड
तोहरा छह बल विज्ञानक विस्फोटक त्रोटक ध्वंसक हन्त!
द्रवित द्रव्यकेँ करह वाष्पमय अग्निक दाह प्रवाह अनन्त
हम गढ़इत छी प्रतिमा धूलि माटि-कणकेँ कय सलिलक सेक
जे जत विखड़ल शत सहस्र कण, कय तनि संहत संगत एक
विश्लेषणकेँ संश्लेषणमे परिात करब हमर संकल्प
भूमिका लघिमाकेँ भूमामे बदलि अल्पकेँ करी अनल्प
वाक्य हमर ऐकिक आरम्भिक तोहरा पद - खण्डक आवेश
तोँ प्रदेशकेँ देश कहह, हम विश्वहिकेँ कुटुम्ब परिवेश
विश्वनाथ वा जगन्नाथ व्यापक विभु विष्णु विरट महान
हमर देवता सहस नाम रहितहुँ कखनहुँ न गनित अभिधान
तोहर दिव्यता बाप्प-द्रव्यमय, जडमय सीमित कक्ष समक्ष
जकर लक्ष्य नरता वानरता मानवता नवता प्रत्यक्ष
हम अपर्गक पथक पथिक, तोँ वर्ग-वर्गमे बाँटह स्वर्ग
नर मात्रहिकेँ नारायण बनबी, तोँ नरक नर क संवर्ग
लघुतम तोहर गणित अगनित नित हमर महत्तम कलना एक
भिन्न व्यकलनक बनह हिसाबी, ऐकिक नियम एम्हर अछि टेक
भाषा प्राकृत-विकृत विभाषा, अनुसृत संस्कृति प्रकृतिक मूल
हम पद मूलक विदित उपासक, तोँ शीर्षकहिक पकड़ह चूल
गगन अनन्त नखत कन गनइत तोँ संख्यानक विज्ञ विशेष
हम धराक आख्यानहि बुझलहुँ शेषक शय्याश्रयी अशेष
‘अणोरणीयान’ बुझले-गमले, तदपि महीयान् अन्तिम तत्त्व!
भूमा सुख, तेँ मृतसँ अमृत असत्सँ सत, लघु सँ पूर्णत्व।।
कतबहु खण्डक बनह विभाजक, भाग-भागमे विभजन-व्यग्र
हम अखण्ड ऐक्यक संकेतक एक निकेतन कलित समग्र
‘भूमा वै सुख’ हमर सुखक सीमा असीम अछि ज्ञान अनन्त
तोहर खण्डनक खण्ड न कय सकबे अखण्डकेँ खण्डित अन्त