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खण्डहर और बूढ़ा आदमी ! / उत्तिमा केशरी

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मेरे घर के सामने
उस खण्डहरनुमा मकान में
न जाने कब से
वह बूढ़ा आदमी काट रहा है
अपना बचा-खुचा जीवन !

वह खण्डहर
पुराने मन्दिर की तरह
सुनसान है,
सूखे तालाब की तरह
उदास है।
निस्सिम रात्रि में
कुत्ते की भौंकने की तरह
मनहूस दीखता है।

कहती है दादी —
उनके दोनों बेटे
परदेश में जा बसे हैं,
बेटी, अपनी ससुराल में ।

बूढ़ी के अनन्त यात्रा पर
जाने के बाद बूढ़ा
हो गया है
बिलकुल अकेला।

वह प्राणी, अब हो गया है
संदर्भहीन भी।
अपनी पकी दाढ़ी, मूछों
और
जटिल केश-राशि से आच्छादित
जब चलता है-तीन टाँगों पर,
तब, उसकी झुकी गर्दन,
बना डालती है समकोण
उसकी देह यष्टि पर।

तब मैं फ़र्क नहीं कर पाती
खण्डहर और उनमें ।
एक बिना सांस का
एक दूसरा सांस लेते हुए जीता है।