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खत्म नहीं होगी लयवत्ता / योगेन्द्र दत्त शर्मा

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ओ मेरे अग्रज कवि, गीतकार!
मेरे श्रद्धेय बंधु,
श्रीमन् देवेन्द्र ‘इन्द्र’!
करता हूं नमस्कार,
स्वीकारें!

‘पथरीले शोर में’
‘पंखकटी मेहराबें,’
‘कुहरे की प्रत्यंचा,’
‘काजलयी,’
ये सारी रचनाएं
मैंने पढ़ डाली हैं,
गीत आपके पढ़कर
मुग्ध हुआ हूं अक्सर!

मैंने जो गीत लिखे
आपको सुनाये
पढ़वाये हैं,
मेरे गीतों ने भी
अक्सर ही पाया है
सहज स्नेह आपका!

मैंने महसूस किया
गीत को समर्पित है
आपका समूचा व्यक्तित्व
सदा
गीत जिया करते हैं
गीतों को ओढ़ते, बिछाते हैं!
मैं खुद भी
गीत में
स्वयं को अभिव्यक्त कर,
कृतार्थ समझ लेता हूं
अपने को!
मेरी इस गीतमयी यात्रा को
डेढ़ दशक बीत चला!
इस अर्से में मैंने
गीत-विद्या को
पूरा देखा है, परखा है,
समझा है, जाना है!
और इस नतीजे पर
पर पहंुचा हूं-
कविता का श्रेष्ठ तत्व
गीत में निहित होता!

गीतों में कविता का पूरा संवेग
प्रखर और पुष्ट रूप में समाता है
भाव, शब्द, अर्थों की
पूरी लय
गीत में
समाहित हो जाती है!
कविता में छंदों की
है विशिष्ट भूमिका!
जिसमें अभिव्यक्ति की
समूची संभावना
समर्थित कर देती है
अर्थों की व्यंजना!
अनाहत संवेदना!!

कविता में
गीत
सदा
सर्वोपरि होता है!
और आज
गीतों ने
सिद्ध कर दिखाया है!
अर्से से तिरस्कार
व्यंग्य, उपेक्षा
सहकर
गीत पुनः उभरा है
काल की कसौटी पर
निपट खरा उतरा है!
कविता का
पूरा परिदृश्य
गीतधर्मी है
आज
समय साक्षी है!
चाहे वह गीत हो
ग़ज़ल हो
नवगीत हो,
गेयात्मक कविता को
गीत ही कहेंगे हम
चाहे शैली में
कुछ भी अंतर आ जाये!

गीतों में
राग और संवेदन का
रचाव
लय के बारीक तंतुओं से
जब जुड़ता है,
सारा वागार्थ
पार्वती-शिव हो जाता है!
बौद्धिकता से बचकर
राग-चेतना रचकर
गीतों ने सिरजी है,
छंदों की एक अलग
सांगीतिक सत्ता!

जब तक मानव-मन में
संवेदन
राग है
तब तक
उसमें
जिजीविषा की भी आग है!
यही आग कविता है
कविता ही जीवन है
जीवन की
एक व्यवस्था है लय!
इसीलिए
कविता में
लय बहुत जरूरीहै?
लयहीना कविता
निर्गन्ध फूल जैसी निर्जीव है!
अधूरीहै!!

हृदय और धड़कन का,
फूल और खुशबू का
जैसा रिश्ता होता
वैसा ही रिश्ता है
कविता से लय का!
है यही तकाजा
या सत्य अब समय का
(अनुचित लग सकता है कुछ को अलबत्ता)
जब तक
इस धरती पर
कविता होगी
तब तक
कविता से
खत्म नहीं होगी लयवत्ता!

-आपका
अनुज, समानधर्मा
सविनय-
योगेन्द्र दत्त शर्मा!
(श्री देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’ को लिखा गया पत्र)
-23, अपै्रल, 1986