भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खदकैत रही रसमे / जीवकान्त

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

माटि होइत अछि दू रंग
रौद पकै छै एक स्वाद एक रंग
पानिमे सिझाइ छै एक गन्ध एक रंग
माटि रखैत अछि मञ्जूषामे बीज
जोगबैत अछि प्राण
अपन दुनु रंगकेँ सनैत अछि
आ प्राणकेँ दीप्त करबाक उत्सवमे
सातो रंग पहिरैत अछि

हम चाहैत रही
जे माटिक रसकेँ जीबी
उसर्गि दी निन्न
तेयागि दी अपना रसकेँ पकएबाक बेगरता
हम ओकर रसमे
रहलहुँ अछि खदकैत
ओ हमर स्रोत हमर आदान
हमर समस्त बाट जाइत अछि निच्चाँ
जाइत अछि माटि दिस
पछिला खेप आब नहि अछि मोन
अगिला खेप लेल
एतबे अछि मोन
खदकैत रही रसमे
आधा तापमे
आधा जलमे