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खमोश चीख़ से लफ़्ज़ों के बयां तक सोचूं / कुमार नयन

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खमोश चीख़ से लफ़्ज़ों के बयां तक सोचूं
तुम्हारे दर्द को आखिर मैं कहां तक सोचूं।

मिरे ख़याल के दम घुटने की क्या हैं वजहें
दिलों में ज़हर का भरता जो धुआं तक सोचूं।

अभी भी है यहां अफसानों के किरदार बहुत
'कफ़न' की बुधिया से 'ठाकुर का कुआं' तक सोचूं।

सुकूने-दिल को भी पाने की हैं जगहें कितनी
कि मयकदे से मैं मस्जिद की अजां तक सोचूं।

ज़माने में न कोई भी हो कहीं पर निज़ाम
कोई न सोचे जहां तक मैं वहां तक सोचूं।

बिछे हैं ख़ार कहीं पर तो कहीं पत्थर हैं
यही न राहे-वफ़ा हो मैं जहां तक सोचूं।

ये ज़लज़ला तो गिरा देगा इमारत पल में
मैं बेमकां हूँ मगर अहले-मकां तक सोचूं।