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खरापन बालिग़ हो गया है / शिवकुटी लाल वर्मा
Kavita Kosh से
धर्मान्धता !
जाओ दूर कहीं वीराने में अपना सिर छुपाओ
तुम्हारी साँस से बदबू आती है
बेहद ज़रूरी है
कि इस विस्तृत घास के मैदान में
बीमारों को ताज़ी हवा मिल सके
साम्प्रदायिकता !
बराय-मेहरबानी इस अहाते को खाली कर दो
मकान की आबो-हवा बदलने के लिए
मुझे यहाँ अभी अनेक पेड़
और कई रंग के ख़ुशबूदार फूल उगाने हैं
झूठी सद्भावनाओं !
अब कहीं और जा कर ख़ातिरदारी कराओ
खरापन बालिग़ हो गया है
इंसानियत !
सिसको नहीं
मुँह ढँकने की कोई ज़रूरत नहीं
तुम्हारे निर्वासन के दिन ख़त्म हो चुके हैं
अन्दर आओ ।