खरोंचें और टाँके / फ़रीद खान
1.
होंठ सिले,
पलकें सिलीं
दुपट्टा माथे से टाँक,
कटघरे में वह खड़ी थी, और साध रखा था एक गहरा मौन।
वकील उससे पूछते जा रहे थे सवाल।
जैसे अंधे कुँए में उपर से कोई पूछ रहा हो,
कोई है ? कोई है ?
और कुआँ बस मुँह बाए पड़ा हो।
वह इसलिए नहीं चुप है कि बताना नहीं चाहती कुछ भी।
बल्कि वह समझ चुकी है,
कि खुले आम इतना कुछ होने के बाद भी,
अगर कोई पूछता है कि क्या हुआ,
तो यह नाटक है इंसाफ का और कुछ नहीं।
और जो वाकई नहीं जानते।
उसकी खरोंचों को देखें नजदीक से।
खोलें उसके टाँके।
जरा सँभाल के,
टाँकों ने ही सँभाल रखा है उसके टुकड़ों को।
2.
छोड़िए उसका नाम।
बस इतना समझ लीजिए,
कि महज तीन सौ रुपए में जिसे खरीदा गया हो रूप के हाट में।
उसकी कुंडली, जन्म की तारीख से नहीं,
बिकने की तारीख से बननी चाहिए।
बिकने के समय को मानना चाहिए जन्म का समय।
तब कीजिए बात उसके भाग्य की।
वह भिड़ गई थी अपने भाग्य से।
चलते हुए जैसे खंभे से टकरा जाता है कोई।
इसीलिए आईं इतनी चोटें, खरोंचें।
पड़े इतने टाँके।
धुँध और पुल के बीच खड़ी,
उसकी बेटी देती है अपना मंतव्य।
'हम भी अच्छे घरों में पैदा होते,
तो कितना अच्छा होता।'
धीमी सी फुसफुसाहट चूम लेती है उसके गाल।
'पता नहीं, वहाँ भी अच्छा होता या नहीं।'