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ख़ाक-ए-दिल कहकशाँ से मिलती है / शाहीन
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ख़ाक-ए-दिल कहकशाँ से मिलती है
ये ज़मीं आसमाँ से मिलती है
हाथ आती नहीं कभी दुनिया
और कभी हर दुकाँ से मिलती है
हम को अक्सर गुनाह की तौफ़ीक़
हुज्जत-ए-कुदसियाँ से मिलती है
दिल को ईमान जानने वाले
दौलत-ए-दिल कहाँ से मिलती है
मावार-ए-सुख़न है जो तौक़ीर
इक कड़े इम्तिहाँ से मिलती है
इंतिहा ये कि मेरी हद्द-ए-सफ़र
मंज़िल-ए-गुमरहाँ से मिलती है
हर सितारा लहूलुहान मिरा
ये जबीं आसमाँ से मिलती है
कुंज-ए-गुल क ख़बर दरीचे को
अब तो बाद-ए-ख़िजाँ से मिलती है
सहल ‘शाहीन’ ये हुनर तो नहीं
शाइरी नक़्द-ए-जाँ से मिलती है