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ख़ाक-दर-ख़ाक ही मिलते देखे / ज़ाहिद अबरोल
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ख़ाक दर ख़ाक ही मिलते देखे
मेरी आंखों ने जो सपने देखे
बेहुनर<ref>कला हीन</ref>जाल में फंसते देखे
बाहुनर<ref>कलाकार</ref>उससे निकलते देखे
जुर्म, सच्चाई, दलीलें, इंसाफ़
सब कचहरी ही में बिकते देखे
जम गया दिल में जो ग़म तह-दर-तह
अश्क पत्थर में बदलते देखे
चारःगर<ref>चिकित्सक</ref>डूब गये चिन्ता में
जब मिरे जिस्म के ख़ाके<ref>रूपरेखा,ढांचे</ref> देखे
अब के देखा जो तुम्हें देर के बा'द
सिल चुके ज़ख़्म भी खुलते देखे
हम समुंदर को भी छान आये हैं
उसमें नदियों के भी लेखे देखे
पारसाई<ref>संयम</ref>को भुला कर “ज़ाहिद”
ख़ुदपरस्ती<ref>आत्मपूजा</ref>के भी जल्वे देखे
शब्दार्थ
<references/>