ख़ाली घर / प्रत्यूष चन्द्र मिश्र
गाँव के किनारे झाड़ झँखाड़ से भरा यह एक ख़ाली घर है
काफ़ी दिन हुए अब इस घर में कोई नहीं रहता
धूल और गन्दगी ने इस घर में बना लिया है साम्राज्य
इस घर के चूल्हे फूटे हुए हैं और उनसे कोई धुआँ नहीं उठता
बिल्लियाँ जब-तब बैठती है इस चूल्हे में
गली के कुत्ते आते हैं इस घर में थकान मिटाने
गिलहरियाँ करती है धमा-चौकड़ी इस घर में
गिरगिट बदलते हैं दिन में कई बार रंग
अक्सर देखे जाते हैं इस घर में विषैले जीव
जिनके नाम से ही काँप जाते हैं बच्चे
टूटे हुए छप्पर पर बिखरी हुई बेतरतीब लत्तरें
पूरे घर में मकड़ियों का जाल और उनसे उलझने वाला कोई नहीं
सब कुछ बिखरा हुआ इस घर में और अब किसी के काम का नहीं
कभी इस घर में भी रहती थी रौनक
चूल्हों से आती थी छौंक-बघार की महक
बच्चों की धमा-चौकड़ी से गुलजार रहता था घर
कौवे लाते थे मेहमान के आने की ख़बर
आँगन गूंँजता रहता था अक्सर सोहर और विदाई के गीतों से
पहिरोपना और नवान्न के जलसे में शामिल रहता था पूरा गोतिया दियाद
अब इन सारी स्मृतियों का कोलाज भर है यह घर
घर के ख़त्म होने से ख्त्मख़ होती है एक सभ्यता भी
ग़ायब होता है एक जीवन संगीत, सूख जाता है जीवन वृक्ष
ख़त्म होता है एक इतिहास और भूगोल भी
कोई भी घर अकेले कभी ख़त्म नहीं होता