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ख़ुदसफ़री - 1 / विमलेश शर्मा

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किसी विशेष मन: स्थिति में मनोवृत्तियाँ भी
उस मन: स्थिति के अनुकूल ही नज़र आती हैं
सच ही कहा गया है कि
जैसा मन
वैसी दृष्टि
वैसा ही दृश्य!
यह मन उतनी ही यात्रा तय करता है
जितनी कि हम उसे छूट देते हैं
एक समय शब्दों से प्रेम हुआ
जाना कि साँस-दर-साँस शब्द घुल जाए
तो कोई सिद्धि हो
यह सोचा कि शब्द ही संपदा
शब्द ही बुद्धि
और शब्द ही हमारी ताक़त
पर लाओत्से ने कुछ और कहा
बात ठन-सी गई, पर बन गई
कि
शब्द-बाहुल्य बुद्धि को क्षीण करता है
जितने अधिक शब्द अंतस् में घर करते
उतनी ही बुद्धि मंद पड़ती है
एक आवरण शब्द के प्रयोग मात्र से उस पर चढ़ जाता है
और उसका मुलम्मा छूट जाता है

शब्द परिधि है
बाहरी परिक्रमा भर है
एक सज्जन का कहा ध्यान आया कि शब्दों से ऊपर उठना होगा
और यूँही
इस भाव-जगत् को
जीते-जीते जाना कि
किंकर्तव्यविमूढ मनःस्थिति में
शब्द साथ छोड़ देते हैं

वे बस भावों के सहचर हैं!
भाव-भाव में फ़र्क़ होता है
एक ने हाथ जोड़ कर नमस्कार कहा
और मन के भाव शब्दों में छुपा लिए
और एक ने नमस्कार भर कहकर
दिल जीत लिया!
शब्द एक ही था भाव अलग-अलग!
शब्द कोरे शब्द हैं
दिलासा भी देते हैं तो धोखा भी देते हैं
अत: मौन को चुनना
वो सच्चा मीत है
शब्द यात्रा करवाता है
मौन स्थैर्य देता है
मनुष्य में शब्द यंत्र भीतर भी चलता है
और बाहर भी
लेकिन बुद्ध थिर हैं
बाहर भी, भीतर भी
दरअसल लौ के ठहरने के लिए हवा का थमना होता है
परिधि से केंद्र तक सरकना होता है
महावीर बनना होता है
तभी ख़ुद तक का सफ़र तय होता है।