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ख़ुदा की बन्दगी मैंने न सुब्ह की न शाम की / देवेन्द्र शर्मा `इन्द्र'
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ख़ुदा की बन्दगी मैंने न सुब्ह की न शाम की
तुम्हें तलाशते हुए ये ज़िन्दगी तमाम की
नज़र मिला के एक पल वो शख़्स आगे बढ़ गया
न ख़ैरियत ही पूछी कुछ न रस्मिया सलाम की
अभी तो आप देखिए मेरे हुनर की इब्तिदा
अभी न बात छेड़िए ख़ुदारा इख़्तिताम की
उसे किसी भी ख़ास की न चाहिए रिआयतें
सभी के वास्ते फ़क़ीर ने दुआ-ए-आम की
उठा रहा जो बार-बार अपना हाथ बज़्म में
उसे भी ग़ौर से सुनो कहे वो बात काम की