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ख़ुद्दार और सनकी / पीयूष दईया
Kavita Kosh से
चाणक्य मित्र की सिखावन रहती
गेंद अपने पाले में रखनी चाहिए
हमेशा
सुनता वह कवि गर्वीला
ख़ुद्दार मूर्ख का सनकी चेला
उछल-उछल
टप्पे-टप्पे होती गेंद को
रोक लेता हर बार
डाल आता फिर
अन्यों के पाले में
रहता
यूँ ख़ुश-ख़ुश सनकी चेला
और हँसता वह
ख़ुद्दार मूर्ख
नेपथ्य से