ख़ून, नदी और उस पार / मनीषा पांडेय
तुम जो भटकती थी
बदहवास
अपने ही भीतर
दीवारों से टकराकर
बार-बार लहूलुहान होती
अपने ही भीतर क़ैद
सदियों से बंद थे खिड़की-दरवाज़े
तुम्हारे भीतर का हरेक रौशनदान
दीवार के हर सुराख़ को
सील कर दिया था
किसने ?
मूर्ख लड़की
अब नहीं
इन्हें खोलो
ख़ुद को अपनी ही क़ैद से आज़ाद करो
आज पाँवों में कैसी तो थिरकन है
सूरज उग रहा है नदी के उस पार
जहाँ रहता है तुम्हारा प्रेमी
उसे सदियों से था इंतज़ार
तुम्हारे आने का
और तुम क़ैद थी
अपनी ही कैद में
अंजान कि झींगुर और जाले से भरे
इस कमरे के बाहर भी है एक संसार
जहाँ हर रोज़ सूरज उगता है,
अस्त होता है
जहाँ हवा है, अनंत आकाश
बर्फ़ पर चमकते सूरज के रंग हैं
एक नदी
जिसमें पैर डालकर घंटों बैठा जा सकता है
और नदी के उस पार है प्रेमी
जाओ
उसे तुम्हारे नर्म बालों का इंतज़ार है
तुम्हारी उँगलियों और होंठों का
जिसे कब से नहीं सँवारा है तुमने
वो तुम्हारी देह को
अपनी हथेलियों में भरकर चूमेगा
प्यार से उठा लेगा समूचा आसमान
युगों के बंध टूट जाएँगे
नदियाँ प्रवाहित होंगी तुम्हारी देह में
झरने बहेंगे
दिशाओं में गूँजेगा सितार
तुम्हारे भीतर जो बैठे थे अब तक
जिन्होंने खड़ी की दीवारें
सील किए रोशनदान
जो युद्ध लड़ते, साम्राज्य खड़े करते रहे
दनदनाते रहे हथौड़े
उनके हथौड़े
उन्हीं के मुँह पर पड़ें
रक्तरंजित हों उनकी छातियाँ
उसी नदी के तट पर दफनाई जाएँ उनकी लाशें
तुमने तोड़ दी ये कारा
देखो, वो सुदरू तट पर खड़ा प्रेमी
हाथ हिला रहा है....