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ख़्वाब / फ़ाज़िल जमीली
Kavita Kosh से
तुझे छूने की हसरत में
दरख़्तों से लिपटकर मैं
लचकती डालियों को चूम लेता हूँ
हवा पत्ते गिराती है
तो मैं तुझसे बिछड़ने का
वो मंज़र याद करता हूँ
कि तू एक पेड़ के नीचे खड़ी है
और मैं तेरी नज़र की
सरहदों से दूर होता जा रहा हूँ
एक परिन्दा फड़फड़ाकर उड़ गया है
मैं पलटकर देखता हूँ
गर्द आलूदा फ़िज़ा में
कुछ नज़र आता नहीं है
सिर्फ़ मैं हूँ
जो मुझे आधा दिखाई दे रहा है
और आधा क्या ख़बर किस भेस में है
देस में है या किसी परदेस में है ।